Friday, June 13, 2014

हम पांच!

-वीर विनोद छाबड़ा

गुज़री ज़िन्दगी के हर मोड़ पर नए रिश्ते बने, नए मित्र दाखिल हुए और कई पुराने छूट गए। धंधुली सी स्मृति ही दिल-ओ-दिमाग में बाकी है। परंतु कुछ मोड़-दर-मोड़ साथ-साथ रहे और अभी तक हैं। इन्हीं से तमाम दुख-सुख, हाल-ए-दिल शेयर किए। ज़िन्दगी के इस सफ़र में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया, लखनऊ विश्वविद्यालय। यहां राजनीतिशास्त्र विभाग में 1971 से 1974 तक मैंने स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। इस दौरान सहपाठी अनेक मिले, परंतु मित्र केवल चार ही हुए-रवि प्रकाश मिश्र, प्रमोद जोशी, विजयवीर सहाय और उदयवीर श्रीवास्तव। यानी हम पांच। मित्रता का बंधन इतना प्रगाढ़ था कि अभी तक सब मेरे साथ हैं। यकीन है कि ज़िंदगी के बाकी चंद सालों में भी साथ रहेंगे। इस मोड़ पर मित्रता लंबे वक़्त तक इसलिए कायम रही कि जब हम मित्र हुए तब तक हम काफी परिपक्व हो चुके हो चुके थे। याद नहीं कि किस आकर्षणवश हम मित्र बने। वो कहते हैं प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ होगा। मित्र भी बनाये नहीं जाते, बस बन जाते हैं। हम पांचों के करीब आने का यही कारण रहा। राजनीतिशास्त्र विभाग के उस दौर में हम पांचों का खासा दबदबा हुआ करता था।

प्रगाढ़ता के बावजूद दुर्भाग्य रहा कि हम पांचों की सामूहिक तस्वीर 44 साल के लंबे सफ़र में सिर्फ़ एक ही बार बन पायी। और ये तस्वीर पोस्ट में दिख रही है। परिचय इस तरह है -प्रथम पंक्ति में सबसे दायें बैठे हैं, रवि प्रकाश मिश्र, हिंदी साहित्य के इतिहास के रचियता मिश्र बंधुओं के पंडित श्याम बिहारी मिश्र के पौत्र हैं। दूसरी पंक्ति में बाएं खड़े हैं उदयवीर पाल श्रीवास्तव। कोई 25-30 साल पहले सामयिक समस्याओं पर कुछेक लेख लिखे और फिर नामालूम कारणों से ठंडे पड़ गए। वरिष्ठ पत्रकार आकू श्रीवास्तव के पूज्य जीजाजी हैं। इसी पंक्ति में सातवें स्थान पर प्रमोद जोशी दिख रहे हैं। इनसे सभी भली-भांति परिचित है। स्वतंत्र भारत लखनऊ में सह-संपादक से लेकर अनेक समाचारपत्र प्रतिष्ठानों की यात्रा करते हुए स्थानीय संपादक, हिन्दुस्तान, दिल्ली तक पहुंचे। संप्रति सुप्रसिद्ध वरिष्ठ पत्रकार हैं। स्वतंत्र लेखक है। आज की तरह पहले भी हम सबमें अधिक कुशाग्र बुद्धि के मालिक थे। ऊपर की पंक्ति में सबसे बाएं मैं हूं और मेरे बाद विजयवीर सहाय हैं, प्रख्यात कवि-लेखक-संपादक श्री रघुवीर सहाय के छोटे भाई। इनके एक और बड़े भाई धर्मवीर सहाय भी नवभारत टाइम्स, दिल्ली में थे। विजयवीर स्वतंत्र भारत में सह संपादक से कैरीयर प्रारंभ करके उप-मुख्य समाचार संपादक तक पहुंचे। संप्रति साप्ताहिक मार्डन टाईम्स के प्रकाशक-संपादक हैं। मेरा अपना परिचय यह है कि मेरी पहचान मेर पिता से रही। मेरे पिता, रामलाल, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार थे।


संयोग से मुझमें, विजयवीर तथा उदयवीर में कई विचित्र समानताएं थी। जैसे हम तीनों के नाम में ‘वीर’ मौजूद है, तीनों की माताओं का नाम शकुंतला था, तीनों ही गुड थर्ड डिवीज़न में उतीर्ण हुए, डिवीज़न सुधारने के लिए तीनों ने ही एम.ए.स्पेशल में प्रवेश लिया और तीनों ही गुड द्वितीय श्रेणी में सफल हुए।

विजयवीर सहाय संयुक्त सहाय परिवार से थे। यह परिवार लक्ष्मी विलास, माडल हाऊस मोहल्ले के लक्ष्मी सहाय रोड पर अपने पुश्तैनी आवास में आवासित था। लक्ष्मी सहाय विजयवीर के दादाजी थे। उन्होंने ही लक्ष्मी विलास बनाया था। चूंकि वह बहुत विद्वान और सज्जन थे अतः जिस मार्ग पर उनका घर था वहां के निवासियों की मांग पर उस मार्ग का नामकरण उन्हीं के नाम पर का दिया गया। जब हम लोगों की मित्रता प्रगाढ़ हुई तो लक्ष्मी विलास में हमारा आना-जाना बढ़ गया और शीघ्र ही हम सब भी संयुक्त सहाय परिवार के सदस्य हो गये। उस घर का ड्राइंग रूम हमारा प्रिय अड्डा था। कंबाइंड स्टडी के नाम पर हमने अनगिनित शामें और रातें वहां गुज़ारी हैं। वहां पड़ी उस कुर्सी को हम लोग बारी-बारी से हथियाते थे जिस पर कभी विजय के बड़े भाई रघुवीर सहायजी ने बैठ कर अनगिनित कविताएं रची थीं, हिंदी पत्रकारिता को शीर्ष स्थान पर बैठे हुए सपने देखे थे। हमें उस कुर्सी पर बैठ कर विद्वता की एक विचित्र अनुभूति होती थी। बहरहाल, हम वहां मन लगा कर पढ़ते तो थे ही। रोज़ाना किसी न किसी टापिक पर हममें से कोई अपने विचार रखता और फिर हम सब उस पर बड़ी गहराई से डिस्कशन करते। मेरा प्रिय टापिक इंटरनेशनल रिलेशन से संबंधित रहता था। प्रमोद जोशी को तो सारे ही विषयों में महारथ प्राप्त थी। वह किसी भी विषय पर धाराप्रवाह डिस्कस कर लेते थे। हम जब भारीपन महसूस करते तो चुहलबाज़ी और मस्ती पर उतर आते।

पढ़ाई की बोझिलता कम करने के लिये हर दूसरी-तीसरी रात के डेढ़-दो बजे करीब आधा किलोमीटर दूर अमीनाबाद पहुंच जाते। वहां घंटा भर अब्दुल्ला टी-स्टाल पर चाय सुड़कने का दौर चलता। यह टी-स्टाल हम जैसे निशाचरों के लिए रात भर खुला रहता था। दरअसल अमीनाबाद शहर का सबसे बड़ा बाज़ार था। शहर का केंद्र भी। इसके आस-पास कई सिनेमाहाल थे। साढ़े बारह बजे का नाईट शो खत्म होने के बाद यहां चाय पीने वालों की भीड़ जम जाती। शहर के हर हिस्से में जाने के लिये और रेलवे स्टेशन व बस अड्ढे के लिये रिक्शा-तांगा भी यहां प्रचुर मात्रा में हर समय उपलब्ध मिलता। इसी कारण अब्दुल्ला टी-स्टाल रात भर आबाद रहता था।

सन 1973 में यूनिवर्सटी का सेशन खत्म हुआ। मैंने, विजयवीर और उदयवीर ने राजनीति शास्त्र में एम0ए0 स्पेशल करने का निर्णय लेकर पढ़ाई जारी रखी। दरअसल हम तीनों की डिवीज़न अच्छी नहीं थी। एम0ए0 स्पेशल करके डिवीज़न इंप्रूव करने का चांस था। रवि प्रकाश मिश्र और प्रमोद जोशी के अच्छी डिवीज़न में पास होने के कारण रास्ते जुदा हो गये। वे शिद्दत से नौकरी की तलाश में निकल पड़े। लेकिन इसके बावजूद हम अक्सर मिलते थे। मौज-मस्ती की बातें होतीं। उदयवीर पहले से पी0डब्ल्यू0डी0 में नौकरी कर रहे थे। इसलिये हम पांचों में वही सबसे बेफ़िक्र और बिंदास बंदा था। कुछ दिन बाद रवि प्रकाश मिश्र को यू0पी0स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में जाब मिल गयी। हम सब अकसर रवि के आफिस चले जाते। खूब चाय-पानी होता। पुरानी यादें ताज़ा करते। चुहलबाज़ी होती। हममें से रवि ही एकमात्र बंदा था जो बड़े और अमीर घर का बेटा था और जिसकी जेब में जब भी जितना पैसा होता था दिल खोल कर खर्च कर देता। मैं और प्रमोद जोशी फक्कड़ हाल हुआ करते थे। विजयवीर सहाय के जेब में भी पांच रुपये का नोट रहता था मगर सिर्फ दिखाने के लिये। याद नहीं आता कि कभी खर्च हुआ हो। इसीलिये हममें हर समय अमीर आदमी वही हुआ करता था। उसके साथ रहने से सिक्योरिटी का एडीनशनल अहसास भी होता था।

एक दिन की बात है मैं यूनिवर्सटी में अभी क्लास अटेंड करके बाहर निकला ही था कि रवि आया। उसने मुझे एक फार्म दिया। बोला, इलेक्ट्रिीसिटी बोर्ड में वैकेंसी निकली है। एप्लाई कर दो। दो महीने बाद एक्ज़ाम है। कोई टाईप ट्रेनिंग सेंटर तो आज ही से ज्वाईन कर लो। रवि इलेक्ट्रिीसिटी बोर्ड में ही मुलाज़िम था। मैने उसे सर से पांव तक घूरा और साफ इंकार कर दिया। क्या मज़ाक करते हो भाई। यार, मुझे आई0ए0एस0-पी0सी0एस0 कंपीटीशन की तैयारी करनी है। ये बाबूगिरी की नौकरी नहीं। रवि ने मुझे डपट दिया था। बोला था, मैं तुमसे ज्यादा इंटेलीजेंट हूं। अपनी और तुम्हारी औकात मुझे पता है। सपने देखने बंद करो और ज़मीन पर उतरो। समय बहुत खराब है। आगे अभी और भी बिगड़ेगा। सबसे पहले नौकरी ढूंढ़ो और फिर बाद में कंपीटीशन वगैरह।

मुझे उसकी बात में कुछ दम दिखा। परंतु प्रत्यक्षतः मैं इसे स्वीकार नहीं करना चाहता था। इसलिये मैंने हिचकते हुए उसकी बात मान ली। नौकरी के लिये परीक्षा की तैयारी भी वो अक्सर आकर करा जाता था। रवि की मेहनत रंग लायी और कुछ महीने बाद मैं उसके साथ इलेक्ट्रिीसिटी बोर्ड में काम करने लगा। प्रमोद और विजय का रुझान पत्रकारिता में था। विजयवीर को पत्रकारिता की उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण लखनऊ के सुप्रसिद्ध दैनिक स्वतंत्र भारत में जाब मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। हां, प्रमोद जोशी को थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ी। उसके पास उसकी लियाकत और कार्टून बनाने की नसैर्गिक कला ही सहारा था। प्रमोद की मेहनत और किस्मत आखिर रंग लायी। स्वतंत्र भारत के मुख्य संपादक अशोक जी प्रभावित हुए और परिणामतः प्रमोद जोशी स्वतंत्र भारत में सह-संपादक पद पर नियुक्त कर लिये गये। दो-तीन साल बाद इलेक्ट्रिीसिटी बोर्ड में पुनः वैकेंसी बनी। इस बार मैंने और रवि ने लोक निर्माण विभाग में कार्यरत उदयवीर को भी परीक्षा के लिये तैयार किया। उदयवीर होशियार तो था ही। आसानी से वो पास हो गया। इस तरह वो भी हमारे साथ हो गया। हम तीनों सेवानिवृति तक एक ही विभाग में रहे।

समय पंख लगा कर उड़ता रहा। ज़िन्दगी  कई बार कसमसाई। कई नए मोड़ आए। नया परिवेश। नयी ज़रूरतें। नये रिश्ते और नये दोस्त। ऐसे में पिछले मोड़ पर कई साथी छूटे, स्मृतियों में गुम हो गए। हमारे साथ भी कुछ-कुछ यही हुआ। मैं, रवि और उदयवीर एक ही बिल्डिंग में रहे। फिर भी हमने अपने-अपने संसार बना लिये और उसी में गुम हो गये। विजयवीर और प्रमोद भी लखनऊ में रहे। एक ही समाचार पत्र में काम करते रहे। और उनके भी अपने अलग-अलग संसार बन गये थे। सिर्फ़ दुख-सुख के मौको पर एक-दूसरे की याद आती थी। धीरे-धीरे इसमें भी कंजूसी होने लगी। मगर दोस्ती का दम नहीं निकला तो इसलिए कि मैंने कड़ी बन कर सबको जोड़े रखा। एक-दूसरे का हाल-चाल मुझसे ही पूछते रहे और मैं उन्हें बताता रहा। और सोचता रहा कि आखिर ऐसा क्यों है कि सब एक-दूसरे के प्रति चिंतित तो हैं लेकिन सीधा संपर्क नहीं करते। शायद अपनी दुनिया में व्यस्त रहने की बाध्यता है और लंबे अंतरात तक संपर्क न कर पाने की शर्मिन्दगी और झिझक भी।

एक लंबा अंतराल बीत चुका है। बल्कि युग बीत गया सा लगता है। आज विजयवीर का घर ‘लक्ष्मी विलास’ अपने पुराने स्वरूप में वहां नहीं है। पारिवारिक ज़रूरतों की मजबूरी में इसे 2009 में जमींदोज़ कर दिया गया और इसके स्थान पर कई अपार्टमेंट्स वाली तिमंज़िली इमारत में निर्मित कर दी गयी। अब इसमें कभी संयुक्त रहने वाला सहाय परिवार कई टुकड़ों में बटा हुआ बसा है। रघुवीर सहायजी इसी पुराने घर में जन्मे थे। उनकी कुछ पुरानी पुस्तकें, टेबुलनुमा वार्डरोब और तिपाई विजयवीर के ख़जाने में हैं और राईटिंग टेबुल छोटे भाई अजयवीर के घर में सुरक्षित है। पर मकान की टूट और पुनर्निमाण की आपा-धापी में उनकी प्रिय कुर्सी गुम हो गई है। इसके ध्वंस के समय मैं विजय वीर के संपर्क में रहा होता तो अवश्यमेव इस कुर्सी को हथिया लेता। पांच साल पहले अगर लक्ष्मी विलास टूटा न होता तो पूरे सौ साल का होता। लेकिन एक अच्छी बात यह हुई कि नवनिर्माण के पश्चात भी यह ‘लक्ष्मी विलास’ ही है और मूल निर्माण का काल भी इस पर अंकित है। रवि मिश्रा अभी भी गोलागंज स्थित लगभग खंडहर में तब्दील हो चुके और हिंदी साहित्य के इतिहास की याद दिलाते करीब ढाई सौ साल पुराने पुश्तैनी ‘मिश्रा भवन’ के एक कोने में दुबके हैं। मैं जब कभी वहां जाता हूं तो मुझे उसके पुरखों, हिंदी साहित्य के रचियता, के ‘होने’ का अहसास होता है।

प्रमोद जोशी लखनऊ छोड़कर दिल्ली चले गए। लेकिन लखनऊ से उनका इश्क कायम रहा। कुछ महीने पहले बेटी की शादी करने लखनऊ ही आए थे। उम्मीद थी, इसी बहाने सब मिलेंगे। पर जाने क्यों, ऐसा क्यों न हुआ। विजयवीर सहाय के घर भी दो बार खुशी का मौका आया। इसमें मैं और उदयवीर तो सम्मिलित हुए परंतु न प्रमोद और न ही रवि दिखे। यही उदयवीर के साथ हुआ। कतिपय मजबूरीवश हम फिर एक साथ नहीं हो पाये। रवि के घर भी खुशी दो बार आयी। लेकिन फिर वही बात। दूरी व अस्वस्थ होने की मजबूरी। मैं बदकिस्मत हूं। खुशी मेरे घर की ओर देखना पसंद नहीं करती।

इधर सबसे कई बार बात हुई कि स्मृतिशेष होकर दीवार पर चित्र बन कर टंगने से पूर्व हम पांच एक बार ज़रूर मिलें। धूल की मोटी परतें झाड़ कर पुरानी यादों में गुम हो जाएं, थोड़ी देर के लिए ही सही। मगर 44 साल पुराने युग में ले जाने वाली ये टाईम मशीन तभी चालू होगी जब दिल्ली को दिल दे चुके प्रमोद जोशी अगली बार लखनऊ आएंगे। बाकी के हम चार तो लखनऊ में हैं ही। लेकिन प्रमोद दिल की बाई पास सर्जरी करा के आराम फरमा रहे हैं। जब भी डाकटर उन्हें इजाज़त देगा वो लखनऊ आयेंगे। ऐसा उनका वादा है। यानि गेंद प्रमोद जोशी के पाले में है। फिलहाल पुरानी फ़िल्म ’दुलारी’ का ये गाना याद आ रहा है- सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे...।
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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ 226016
मोबाईल 7505663626

दिनांक 13 06 2014

1 comment:

  1. अच्छा लिखा है। इसमें तमाम बातें जोड़ी जाएंगी। समय आने पर।

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