Tuesday, June 3, 2014

किस्सा खास जूते का !

-वीर विनोद छाबड़ा


किस्सा बहुत पुराना है। इतना पुराना कि इसे अब तक भूल जाना चाहिए था। मगर रह-रह कर याद आती है तो इसलिये कि जब-जब एक खास ब्रांड के जूतों के शोरूम के सामने से गुज़रता हूं तो वो भूली दास्तां याद जाती है। उस ज़माने में जब इस खास ब्रांड के पसंदीदा जूते की कीमत महज़ पचपन रुपये निन्यानवे पैसे थी। वो सस्ता दौर था। इस लिहाज़ से यह कीमत ज्यादा थी। जेब तो हर वक़्त खाली रहती। छात्र
जीवन था। मैं शोरूम को बाहर से ही निहार कर इस हसरत के साथ वापस जाता कि नौकरी मिलने पर पहला काम इस खास जूते को खरीदने का ही करूंगा। उन दिनों ðkरह-बीस रुपये का लोकल ब्रांड जूता नसीब था। इसे तब तक मरम्मत कराकर पहनता था जब तक कि जूता मेकर यह कह दे कि भैया, आयंदा मत आना। अब मरम्मत की कोई गुंजाईश नहीं बची।

मुझे याद है कि एक बार मेरा नया जूता तब चोरी हुआ जब भगवान जी के दर्शन को गया था। तब विदीर्ण हृदय से दो जोड़ी पुराने जूते लेकर जूता मेकर के द्वारे गया-‘‘ भाई, कुछ ऐसा कर दो कि इन दो जोड़ी जूतों में से कायदे का मैटीरीयल निकाल कर एक जोड़ी जूते की गुंजाईश निकल आये।’’ जूता मेकर को मेरे पर तरस आया। उसने उन दो जोड़ी जूतों के बदले में दस रुपये अतिरिक्त लेकर एक जोड़ी नया जूता दे दिया। इसके बाद एक बार फिर ऐसी ही स्थिति पैदा हुई। तब पिताजी और दादाजी के फटे-पुराने जूतों की एवज में एक अदद नई जोड़ी जूते की आशा थी। मगर जूता मेकर ने भगा दिया-‘‘अमां टी0वी0-फ्रिज एक्सचेंज आफर की दुकान समझी है क्या?’’

नौकरी लगी। मैं पहली पगार मिलने ही सबसे पहले उस खास ब्रांड के जूतों के शोरूम पर पहुंचा। तब तक उस खास जूते के दाम पहले से काफी बढ़ चुके थे। पगार के तकरीबन एक तिहाई के बराबर। इससे कम कीमत के तो मेरे बदन पर कपड़े थे। मन थोड़ा उचाट हुआ। साथ ही ख्याल आया माता-पिता का जिन्होंने पाल-पोस कर पढ़ा-लिखा कर इस काबिल बनाया था। बहनों का भी ख्याल आया जिनके संग मैं बचपन में खूब खेले और लड़े थे। यों खानदानी रस्म के मुताबिक पहली पगार माता-पिता के हाथ में ही रखी जानी होती है। घर के प्रत्येक सदस्य का भी उसमें थोड़ा-थोड़ा हक़ बनता है। पिताजी को सूट, मां के लिये साड़ी, छोटी बहन के लिये सलवार-कमीज तो बननी ही थी। बीकानेर में ब्याही बड़ी बहन-जीजा जी और नन्हीं भाजी को भी कुछ कुछ देना बनता था। यह सोच कर मैं भावुक हो गया। खास जूता क्रय करने का इरादा अगले महीने के लिये स्थगित कर किया।


वक़्त गुजरता गया। खास जूते की कीमत भी बढ़ती गयी। साथ ही क्रय शक्ति से बाहर होने के कारण इसके क्रय का प्रोग्राम भी स्थगित होता गया। मगर इरादा नहीं बदला। जब भी पैसा बचा या कोई ऐरियर आदि मिला तो क्रय ज़रूर करना है। जहां चाह वहां राह। जिंदगी में ऐसा मौका आया कि लगा अब इरादा हकीकत में तब्दील हो कर रहेगा। हुआ यह कि मेरी शादी तय हो गयी। दस्तूर के मुताबिक शादी के रोज दुल्हे के तन पर नये कपड़े होते हैं, मोजे और जूते भी। आगे दस्तूर यह था कि इनकी कीमत दुल्हन के मायके से वसूल होती थी। मौका भी था और दस्तूर भी। दुल्हन पक्ष ने भी कह दिया था जो पसंद हो खरीद लो, रसीद भिजवा दें। लेकिन सहसा मेरा खोया ज़मीर ऐन वक़्त पर जाने कहां से प्रकट हो गया। खुद को लानत दी कि मिस्टर, जिस जूते को खरीदने की औकात खुद की हो उसका भार भावी दुल्हन के मायके पर डालना कहां का इंसाफ है? दुल्हन क्या सोचेगी? तब मैंने भीष्म प्रतिज्ञा की। जब औकात होगी तभी खरीदूंगा। एक सस्ता जूता खरीद कर सब्र कर लिया। कई साल गुज़र गये। औकात नहीं बनी। जूते की कीमत कुल पगार की एक तिहाई से नीचे उतरी ही नहीं।

फिर एक और मौका आया। एक प्रिय मित्र की शादी पड़ी। बारात इलाहाबाद जानी थी। संयोग से दफतर से मंहगाई भत्ते का छह महीने का ऐरियर भी मिला। जूते का सोल दो बार बदल चुका था। ऊपर कई पैबंद लगे थे। जूता मेकर सख़्त ताक़ीद कर चुका था-‘‘अब कतई गंजाईश नहीं है। आखिर अपना भी कोई स्टेंडर्ड है। कब तक पुराने की मरम्मत करूंगा।’’ लगा कि अब फाईनली मनपसंद जूता खरीदने का अच्छा दिन गया। महंगा है तो क्या हुआ। जेब में ईश्वर की मेहरबानी से महंगाई भत्ते का ऐरियर है, जिसका पगार से कोई लेना-देना नहीं है। शानदार जूता पैरों में होगा। शादी में शान भी बढ़ेगी। उस वक़्त इसकी कीमत तीन सौ के आस-पास थी। यानि आज के तीन हजार के बराबर। बड़ी शान से हजरतगंज को चला। रास्ते में शादी वाले मित्र का घर पड़ा। रुक कर उसे भी बता दिया कि तुम्हारी शादी के लिये खासतौर पर चिर-प्रतीक्षित खास जूता खरीदने जा रहा हूं। इसकी चाह बचपन से थी मगर औकात होने के कारण अब तक खरीद पाया था। मित्र ने ये सुना तो उदास हो गया। बोला-‘‘यार, शादी मेरी है। मगर मेरा जूता पुराना और तुम्हारा नया होगा। मेरी तौहीन हो जायेगी। जैसे-तैसे शादी हो पा रही है।’’ इशारा साफ था। मैं भावुकता के समंदर में बह गया, अच्छी तरह जानते हुए भी कि ये उधारूचंद मित्र उधार लेने में नंबर वन है, मगर चुकाने में पिछाड़ी। जेब से तीन सौ रुपये निकाल कर मित्र को उधार स्वरूप दे दिये।

मेरा और पिताजी के पैर का नाप एक ही था। पिताजी का एक पुराना रिजेक्टड जूता उठाया। इस जूते में कुछ गुंजाईश थी। फिर जूता मेकर की चिरौरी करने जा पहुंचा। वो इस शर्त पर तैयार हुआ कि कोई गारंटी नहीं दूंगा। चार कदम भी चल सकता है और चार महीना भी। बहरहाल, जैसे-तैसे मैं इलाहाबाद हो आया।
मित्रों ने डांस के लिये बहुत घसीटा। मगर जूता फटने के डर से पेट दर्द का बहाना बना लिया। इलाहाबाद की सड़कों पर बेहतरीन डांस का प्रदर्शन करने का अरमान धरा रह गया। मित्र को देखता रहा। उधार के पैसे का नया जूता पहन कर इतरा रहा है। तबीयत हुई कि फटे-पुराने मरम्मतशुदा जूते से अपना सिर पीट लूं। इससे इरादा और मजबूत हुआ कि उधार की रकम वापस आते ही वो खास जूता खरीदूंगा। मित्र ने अगले माह का वायदा किया था। मगर महीना गुजरा, दो महीने गुज़रे। फिर छह महीने और साल गुजरा। साल पे साल गुजरते गये। कई बार रिमांइड कराया। दूसरों से कहलवाया। यही सुनने को मिला कि अगले माह पगार मिलते ही चुका दूंगा। लेकिन मित्र ने वचन नहीं निभाया। मुंह थक गया। कहना ही छोड़ दिया।

आज पैंतीस साल हो गये हैं। इस बीच मैं और मित्र दोनों रिटायर हो गये। सिर के बाल बहुत कम हो गये। बचे हुए सफेद हो गये। कई दांत भी गिर गये। कल्ले लटक गये। लेकिन मैं भी वचन का पक्का। कई जोड़ी सस्ते जूते पहन कर घिसा दिया। मगर वो खास जूता पहनना नसीब नहीं हुआ। मित्र भी कई साल से दिखे नहीं।

अचानक वो उधारचंद मित्र बाज़ार में दिखे। लपक कर पकड़ा। हाल चाल पूछा तो बोले- ‘‘मौजां हैं। दो बेटियां थीं। शादी कर दी। अब मैं और वाईफ। दो बंदों का परिवार। बढ़िया पेंशन है। समझ ही नहीं आता कि खर्च कहां करूं?’’ मुझे मौका मिल गया। हंसी-हंसी में उसे पैंतीस साल पहले जूता खरीदने के लिये तीन सौ रुपये उधार लेकर डकार जाने की याद दिलायी और सलाह दी कि पुराना कर्ज़ ही अदा कर दो। मित्र याददाश्त पर जोर डालने का अभिनय करते हुए बोले-‘‘कुछ याद नहीं रहा। तुम कह रहे हो तो हो सकता है।’’ फिर बामुश्किल दो सौ रुपये निकाल कर देते हुए बोले-‘‘अभी इतना ही है। बाकी उधार रहे।’’

जिंदगी में इतनी बड़ी अनेपक्षित सफलता इससे पूर्व कभी हासिल नहीं हुई थी। याद आया कि पिछली बार जब पूछा था तो वो खास जूता तीन सौ का था। अब दो-ढाई हज़ार से कम तो नहीं होगा। लेकिन वापस आये ये दो सौ रुपये दो हजार से कम नहीं। कुछ पलों में ही मै उस खास जूते के शोरूम में खड़ा था। शान से उस खास जूते का आर्डर दिया। पुराने ज़माने के दिख रहे सेल्समैन ने हैरान-परेशान होते हुए मुझे सिर से पांव तक घूरा और तनिक तंज़ लहज़े में बोला-‘‘हुजू़र, किस दुनिया में हैं आप? उस ब्रांड को तो गुज़रे मुद्दत हो चुकी है। माफ कीजियेगा बड़ा वाहियात और बेशर्म जूता था। घिसता था और फटता था। पहनने वाले भी ऊब गये। बेशुमार शिकायतें आयीं। इस वजह से जूतों की सेल को नज़र लग गयी। दस साल हुए कंपनी ने बनाना बंद कर दिया। देख लीजिए किसी पुराने जूता मेकर के कबाड़ में। पुराने माल के किसी शौकीन के एंटीक कलेक्शन में भी दिख सकता है आपका ये खास!’’

मैं दांत पीसता हुआ शोरूम से बाहर निकला। मित्र को, खुद को और उस खास जूता बनाने वाली कंपनी को बेहिसाब चुनींदा गालियां दी। अफ़सोस भी किया। तभी मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा। पलट कर देखा तो मुद्दत से गुम एक अन्य अभिन्न मित्र था, जिससे मैं कभी दिली बातें शेयर किया करता था। मैंने उसे किस्सा--जूता बताया तो वो बोला-‘‘गम मत कर प्यारे। लैला-मजनूं, शीरीं-फरहाद, रोमियो-जूलियट, सस्सी-पुन्नू का भी कभी मिलन नहीं हुआ था!’’

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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290 इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मोबाईल 7505663626

दिनांक 03 06 2014

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