Monday, June 30, 2014

कृष्ण निरंजन सिंह उर्फ़ के.एन. सिंह - कातिलाना अंदाज़

- वीर विनोद छाबड़ा

आज की पीढ़ी को बिलकुल विश्वास नहीं करेगी कि एक ज़माने में परदे की दुनिया में एक ऐसा खलनायक भी आया था जो सूटेड-बूटेड परफ़ेक्ट  जैंटिलमैन था। परंतु उसके चेहरे के हाव-भाव, सूट-बूट के ऊपर ओवरकोट, सिर पर हैट और मुंह में दबी सिगरेट से निकलते धूंए से उसको एक रहस्यमयी कातिलाना विलेन का दरजा मिलता था। उसकी एंट्री के अंदाज़ से ही दर्शक समझ जाते थे कि ये शख्स विलेन ही हो सकता है और आगे सीन में कुछ अच्छा नहीं होने जा रहा है। मगर आशाओं के विपरीत
उसका चेहरा उस वक़्त बिलकुल खामोश दिखता था। क्रूर एक्ट के वक्त भी वो कोई बाअवाजे़ बुलंद रोंगटे खड़े करने वाले वाहियात संवाद नहीं बोलता था। उसके संवाद उनके होटों से लगी सिगरेट से निकलते धूंए, उसकी फैली हुई आखों पर उठती-गिरती भंवों व माथे पर चढ़ी त्योरियों से पढ़े जा सकते थे। उस ज़माने में यह विलेन की क्रूर अभिव्यक्ति का एक निराला अंदाज़ था। इसे दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा था। इसी कातिलाना स्टाईल के दम पर इस शख्स ने लगभग 250 फिल्मों में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करायी। नाम था कृष्ण निरंजन सिंह उर्फ़ के.एन. सिंह।

देहरादून के.एन. सिंह की जन्म स्थली थी। वहीं पले, खेले कूदे जवान हुए। पिता चंडी प्रसाद उस ज़माने के प्रसिद्ध वकील सर तेज बहादुर सप्रु के समकक्ष फ़ौजदारी वकील थे। देहरादून से सीनीयर कैंब्रिज के बाद लेटिन की पढ़ाई करने लखनऊ आये। क्या बनना है? इसे लेकर दिल में उहापोह थी। मन का एक पहलू कहता था कि लंदन जाकर बैरीस्टरी करके पिता की तरह नामी वकील बनो और दूसरा पहलू कहता था कि फ़ौज में भरती हो जा। उन दिनों भी देहरादून और आस-पास के पहाड़ के वासियों में फौज में भरती होने की रवायत थी। उनके जीवन यापन के लिये आमदनी का यही एकमात्र ज़रिया था। परंतु होता वही है जो नियति में लिखा होता है।

कृष्ण अपनी बीमार बहन का हाल-चाल लेने कलकत्ता आये। कृष्ण के बहनोई जानी-मानी हस्ती थे। तमाम नामी-गिरामी हस्तियों का उनके घर आना-जाना था। मशहूर थियेटर और सिनेमा आर्टिस्ट पृथ्वीराज कपूर तो उनके पारिवारिक मित्र थे। एक दिन कृष्ण की यहीं पृथ्वीराज से मुलाकात हुई। कैरीयर के मामले में रोलिंग स्टोन की तरह इधर-उधर डोल रहे कृष्ण को पृथ्वीराज ने सलाह दी कि बरख़ुरदार
चेहरे मोहरे से ठीक-ठाक हो। जब तक वकील या फिर फौजी बनना तय नहीं होता तब तक सिनेमा क्या बुरा है। हो सकता है कि मुकद्दर में यही कैरीयर हो। कष्ण ने फिल्मी कैरीयर तो हसीन सपने में भी नहीं देखा था। थोड़ी सकुचाहट के बाद कृष्ण मान गये। उनकी मुलाकात देबकी बोस से करायी गयी। उन्होंने कृष्ण को ‘सुनहरा संसार’ में एक छोटी भूमिका दी। सन 1936 की 09 सितंबर को कृष्ण ने पहली मर्तबा कैमरे का सामना किया। इस तरह कृष्ण कृष्ण निरंजन सिंह का चोला उतार कर के.एन. सिंह बन गये।

Wednesday, June 25, 2014

वो भूतनी के छा.…जी भौंक रहे हैं !

-वीर विनोद छाबड़ा

मैंने यूपी के पावर सेक्टर के हेडक्वार्टर शक्ति भवन में साढ़े छत्तीस साल गुज़ारे हैं। एक से बढ़ कर एक मुरहे बाबुओं और अफसरों से पाला पड़ा।
ऐसे ही एक जमुना जी (असली नाम नहीं) थे। मैं उप महाप्रबंधक था और वे मेरे अनु सचिव थे। कभी हम सब यूडीए थे। वरिष्टता के अनुसार कोई पहले प्रमोट हुआ तो कोई बाद में।
जमुना जी की खासियत यह थी कि जब भी सामने पड़ते तो मुंह से सारी चाशनी झर झर कर बहने लगती थी। इतना मीठा बोलते थे। लेकिन पीठ पीछे सबकी ऐसी काम तैसी किया करते थे। अपने कंधे का बोझ दूसरे पर डालने में महारथी थे।  
मैं उत्पादन निगम के मानव संसाधन और औदयोगिक संबंध का काम देख रहा था। नीचे के कर्मचारियों से लोग असंतुष्ट रहते थे। सब सीधे मेरे पास ही आते थे। उच्चधिकारिओं के फ़रमान भी आते थे कि फलां का केस जल्दी निकालो, शासन को जवाब जाना है या यूनियन वाले बवाल करने वाले हैं।
जमुना जी को मैं बुलाकर आदेश का पालन शीघ्रातिशीघ्र करने की हिदायत देता। वो मेरे  सामने बैठे कर अनुभाग में फ़ोन करते कि फलां केस फ़ौरन करो, छाबड़ा जी नाराज़ हो रहे हैं। कभी नाराज़ के स्थान पर बिगड़ने शब्द का भी प्रयोग करते थे।
मैं जमुना जी को अक्सर समझाता था कि ऐसा मत कहा करों कि मैं नाराज़ हो रहा हूं या बिगड़ रहा हूं। इससे स्टाफ पर विपरीत प्रभाव पड़ता है कि जैसे मैं कोई क्रोधी आदमी हूं। इससे स्टाफ और अफसर में दूरी बढ़ जाती है। लेकिन जमुना जी अपनी आदत से मज़बूर थे।
एक दिन ऊपर से फ़रमान कि फलां ट्रांसफ़र केस में माननीय मंत्री जी इंटरेस्टेड हैं। तुरंत अनुपालन सुनिश्चित हो।
मैंने जमुना जी को बुलाया और इस अर्जेंट फ़रमान से अवगत कराया। उन्होंने आदतन टेलीफोन उठाया तो मैंने कहा- नहीं आप स्वयं अनुभाग में जाएं और केस लेकर आएं। वो चले गए।

Sunday, June 22, 2014

यहां हर शख्स परेशां सा क्यूं है?

-वीर विनोद छाबड़ा

सूबे की राजधानी है। यहां चौबीस घंटे बिजली है, पानी है। चौड़ी सड़कें हैं। जल निकासी और सीवरेज का बेहतरीन सिस्टम है। लोगों में सिविक और ट्रेफ़िक सेंस गज़ब का है। आवागमन के सरकारी और प्राईवेट दोनों सिस्टम प्रचुर मात्रा में हैं। सस्ते भी हैं। नर्सरी से लेकर पोस्ट ग्रेजूएशन और वकालत, एमबीए, मेडिकल और इंजीनियरिंग वगैरह की आला पढ़ाई के ढेरों इंतज़ाम हैं। कहीं किसी भी चीज की कोई किल्लत नहीं। यही सुना था उस बंदे ने। इसीलिये खुद की और परिवार की बेहतर ज़िंदगी की आस में अभावग्रस्त उस छोटे से शहर से यहां इस बड़े शहर में ट्रांसफ़र कराके आया था। इसके लिये ज़बरदस्त जुगाड़ लगानी पड़ी थी।

यहां आया और जो देखा तो पता चला कि बिलकुल ग़लत सुना था। दिखने और झेलने में बड़ा फ़र्क है। छह हजार माहवार किराये पर बामुश्किल दो कमरे का निम्न आय वर्ग कालोनी में मकान मिला। बिजली पानी का डेढ़ हजार अलग से। कंडीशन यह भी है कि वेजीटेरीयन हैं तो ठीक। नानवेज बनायें तो एक बड़ी कटोरी भर कर मकान मालिक को भेजनी ज़रूरी। चलो ठीक। इसमें कोई बुराई नहीं। यहां कौन रोज़ मुर्गा हांडी पर चढ़ता है!

पहले ही दिन जब कदम बाहर पड़े तो पता चला कि सपने ढहना किसे कहते हैं। घर से मुंशी पुलिया चैराहा बामुश्किल दो सौ मीटर है। वहां तक पहुंचने के लिये गड्डों से गुज़रती टूटी-फूटी सड़क पर दुल्हन की तरह बेहद संभल-संभल कर पैर रख चलना पड़ा। एक आध जगह पर सीवर लाईन टूटी मिली, जिसमें से गंदा पानी और मैला उफना का सड़क पर फैला है। इन गड्डों में भी जमा होकर बदबू मारता है। धूल-धक्कड़ और बदबू से बचने के लिये नाक पर रूमाल रख कर जैसे तैसे बंदा चौराहे पर पहुंचा। यहां अजब हाल पाया। आफिस जाने का टाईम है। बसों में ठूंसे लोगों को देखकर बाड़े में ठूंसी भेड़-बकरियां याद आ गयीं। आटो के लिये बेतरह धक्कम-धक्का और भाग-दौड़ है। कुछ हट कर एक खाली आटो रिक्शा दिखता है। ड्राईवर पैर फैलाये हुए बीड़ी फूंक रहा है - ‘‘कहीं नहीं जाना। अपना काम करो।’’ यह कह कर वो झिड़क देता है। चिरौरी की तो इस शर्त पर तैयार हुआ कि मगर किराया दुगना लगेगा। बखत-बखत की बात है। जी, यही कमाई का मौका है। फिर तो सारा दिन ही खाली रहना है...

बंदे ने घ़ड़ी देखी। ओह, पंद्रह मिनट लेट! प्राईवेट नौकरी और आज पहला दिन। सरकारी होती तो बारह-एक बजे पहुंचना भी चल जाता। बंदे की तरह के दो-तीन और भी भटकते भी आ पहुंचे। मरता क्या न करता! चल भाई, आज तेरा ही दिन सही। ऐसा ही शाम लौटते समय भी हुआ।

Monday, June 16, 2014

पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा!

- वीर विनोद छाबड़ा

पानी की बूंद-बूंद का पैसा देना होगा। घर घर में मीटर लगेंगे। ढाई तीन रुपये प्रति हजार लीटर की दर को बढ़ाकर तिगुना कर दिया जायेगा। सरकार की तरफ से ऐसी धमकी भरी खबरें पानी को तरसती जनता-जनार्दन को समाचार पत्रों के माध्यम से पढती है। इससे कुछ लोग व्याकुल व व्यथित होते हैं और
बीच चैराहे पर दस और लोगों को सुना कर दहशत फैलाते हैं। सरकार जन आंदोलन से घबरा कर पानी में  बढ़ोत्तरी का प्रस्ताव वापस ले लेती है।

उन्मुक्तता से जल का दुरुपयोग करने के आदी समाज को ऐसी खबरें निसंदेह अच्छी नहीं लगती है। मगर जुगाड़ू समाज की भृकुटि नहीं तऩती है। जिस तरह इनके लिये कटिया लगा कर मुफ़्त बिजली खीचना मामूली बात है वैसे ही अंडरग्राउंड वाटर पाईपलाईन को पंक्चर करके पाईप जोड़ना भी बड़ी बात नहीं है। यों भी शहर भर के लोग पाईपलाईन से पानी खींचने के लिये अवैध रूप से बिजली से चलने वाला टुल्लू और सबमर्सिबल पंप इस्तेमाल करते ही हैं। लेकिन बंदा दिल तोड़ने और हतोत्साहित करने वाली किसी भी खबर से तनिक भी विचलित नहीं होता है। बल्कि उसे बर्दाश्त करने का कोई सकारात्मक समाधान ढूंढ़ता है। और मुंह के बल गिरने पर नया मार्ग ही निर्मित करने की ठानता है।

समस्या समाधान हेतु सर्वप्रथम बंदा आदतन छप्पन साल पीछे यादों की गली में भ्रमण पर निकलता है। उन दिनों ओवरहैड वाटर टैंक न होने के कारण लखनऊ के आलमबाग इलाके के चंदरनगर मोहल्ले में चंदरनगर मार्किट के ऊपर रिहाईशी मकानों में पानी नहीं चढ़ता था। टुल्लू पंप का तो किसी ने नाम तक
नहीं सुना था। कुछ रसूखदारों ने हैंडपंप लगा रखे थे। पाईप लाईन में जब सुबह-शाम पानी सप्लाई होता था तो रसूखदार हैंडपंपों से खींच लेते थे। बंदे के परिवार सहित बाकी तमाम जनता पंक्तिबद्ध होकर  म्यूनिस्पालटी के बंबों से पानी भरती थी। बंदा तब आठ-दस साल का था। उसे पंक्ति में पानी भरने में और फिर दुमंज़िले पर चढ़ाने में आनंद की अनुभूति होती थी। आनंदित होने का एक कारण यह भी था कि उतनी देर तक के लिये पढ़ाई से भी निजात रहती। घर के सामने उजाड़ मैदान था जहां सरकार ने एक बड़ा सा पक्का कुंआं बनवा दिया था। इसके इर्द-गिर्द तीन फिट ऊंचा प्लेटफार्म था। यहां बैठ कर नहाने का रोमांच भी निराला था। पानी भी साफ सुथरा होता था। लोग सभ्य थे। मोहल्ले के अलमबरदार ख्याल रखते थे कि कोई इसमें कूड़ा करकट डालने की हिमाकत नहीं करे। बंदे जैसे अनेक बच्चे वहां जमा हो जाते थे। बाल्टी से बंधी रस्सी द्वारा पानी खींचते थे। वहां मौजूद चाचा लोग भी खुशी-खुशी मदद करते थे।

Friday, June 13, 2014

हम पांच!

-वीर विनोद छाबड़ा

गुज़री ज़िन्दगी के हर मोड़ पर नए रिश्ते बने, नए मित्र दाखिल हुए और कई पुराने छूट गए। धंधुली सी स्मृति ही दिल-ओ-दिमाग में बाकी है। परंतु कुछ मोड़-दर-मोड़ साथ-साथ रहे और अभी तक हैं। इन्हीं से तमाम दुख-सुख, हाल-ए-दिल शेयर किए। ज़िन्दगी के इस सफ़र में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया, लखनऊ विश्वविद्यालय। यहां राजनीतिशास्त्र विभाग में 1971 से 1974 तक मैंने स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। इस दौरान सहपाठी अनेक मिले, परंतु मित्र केवल चार ही हुए-रवि प्रकाश मिश्र, प्रमोद जोशी, विजयवीर सहाय और उदयवीर श्रीवास्तव। यानी हम पांच। मित्रता का बंधन इतना प्रगाढ़ था कि अभी तक सब मेरे साथ हैं। यकीन है कि ज़िंदगी के बाकी चंद सालों में भी साथ रहेंगे। इस मोड़ पर मित्रता लंबे वक़्त तक इसलिए कायम रही कि जब हम मित्र हुए तब तक हम काफी परिपक्व हो चुके हो चुके थे। याद नहीं कि किस आकर्षणवश हम मित्र बने। वो कहते हैं प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ होगा। मित्र भी बनाये नहीं जाते, बस बन जाते हैं। हम पांचों के करीब आने का यही कारण रहा। राजनीतिशास्त्र विभाग के उस दौर में हम पांचों का खासा दबदबा हुआ करता था।

प्रगाढ़ता के बावजूद दुर्भाग्य रहा कि हम पांचों की सामूहिक तस्वीर 44 साल के लंबे सफ़र में सिर्फ़ एक ही बार बन पायी। और ये तस्वीर पोस्ट में दिख रही है। परिचय इस तरह है -प्रथम पंक्ति में सबसे दायें बैठे हैं, रवि प्रकाश मिश्र, हिंदी साहित्य के इतिहास के रचियता मिश्र बंधुओं के पंडित श्याम बिहारी मिश्र के पौत्र हैं। दूसरी पंक्ति में बाएं खड़े हैं उदयवीर पाल श्रीवास्तव। कोई 25-30 साल पहले सामयिक समस्याओं पर कुछेक लेख लिखे और फिर नामालूम कारणों से ठंडे पड़ गए। वरिष्ठ पत्रकार आकू श्रीवास्तव के पूज्य जीजाजी हैं। इसी पंक्ति में सातवें स्थान पर प्रमोद जोशी दिख रहे हैं। इनसे सभी भली-भांति परिचित है। स्वतंत्र भारत लखनऊ में सह-संपादक से लेकर अनेक समाचारपत्र प्रतिष्ठानों की यात्रा करते हुए स्थानीय संपादक, हिन्दुस्तान, दिल्ली तक पहुंचे। संप्रति सुप्रसिद्ध वरिष्ठ पत्रकार हैं। स्वतंत्र लेखक है। आज की तरह पहले भी हम सबमें अधिक कुशाग्र बुद्धि के मालिक थे। ऊपर की पंक्ति में सबसे बाएं मैं हूं और मेरे बाद विजयवीर सहाय हैं, प्रख्यात कवि-लेखक-संपादक श्री रघुवीर सहाय के छोटे भाई। इनके एक और बड़े भाई धर्मवीर सहाय भी नवभारत टाइम्स, दिल्ली में थे। विजयवीर स्वतंत्र भारत में सह संपादक से कैरीयर प्रारंभ करके उप-मुख्य समाचार संपादक तक पहुंचे। संप्रति साप्ताहिक मार्डन टाईम्स के प्रकाशक-संपादक हैं। मेरा अपना परिचय यह है कि मेरी पहचान मेर पिता से रही। मेरे पिता, रामलाल, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार थे।


संयोग से मुझमें, विजयवीर तथा उदयवीर में कई विचित्र समानताएं थी। जैसे हम तीनों के नाम में ‘वीर’ मौजूद है, तीनों की माताओं का नाम शकुंतला था, तीनों ही गुड थर्ड डिवीज़न में उतीर्ण हुए, डिवीज़न सुधारने के लिए तीनों ने ही एम.ए.स्पेशल में प्रवेश लिया और तीनों ही गुड द्वितीय श्रेणी में सफल हुए।

विजयवीर सहाय संयुक्त सहाय परिवार से थे। यह परिवार लक्ष्मी विलास, माडल हाऊस मोहल्ले के लक्ष्मी सहाय रोड पर अपने पुश्तैनी आवास में आवासित था। लक्ष्मी सहाय विजयवीर के दादाजी थे। उन्होंने ही लक्ष्मी विलास बनाया था। चूंकि वह बहुत विद्वान और सज्जन थे अतः जिस मार्ग पर उनका घर था वहां के निवासियों की मांग पर उस मार्ग का नामकरण उन्हीं के नाम पर का दिया गया। जब हम लोगों की मित्रता प्रगाढ़ हुई तो लक्ष्मी विलास में हमारा आना-जाना बढ़ गया और शीघ्र ही हम सब भी संयुक्त सहाय परिवार के सदस्य हो गये। उस घर का ड्राइंग रूम हमारा प्रिय अड्डा था। कंबाइंड स्टडी के नाम पर हमने अनगिनित शामें और रातें वहां गुज़ारी हैं। वहां पड़ी उस कुर्सी को हम लोग बारी-बारी से हथियाते थे जिस पर कभी विजय के बड़े भाई रघुवीर सहायजी ने बैठ कर अनगिनित कविताएं रची थीं, हिंदी पत्रकारिता को शीर्ष स्थान पर बैठे हुए सपने देखे थे। हमें उस कुर्सी पर बैठ कर विद्वता की एक विचित्र अनुभूति होती थी। बहरहाल, हम वहां मन लगा कर पढ़ते तो थे ही। रोज़ाना किसी न किसी टापिक पर हममें से कोई अपने विचार रखता और फिर हम सब उस पर बड़ी गहराई से डिस्कशन करते। मेरा प्रिय टापिक इंटरनेशनल रिलेशन से संबंधित रहता था। प्रमोद जोशी को तो सारे ही विषयों में महारथ प्राप्त थी। वह किसी भी विषय पर धाराप्रवाह डिस्कस कर लेते थे। हम जब भारीपन महसूस करते तो चुहलबाज़ी और मस्ती पर उतर आते।

Monday, June 9, 2014

पत्नी पीड़ित मर्द, नहीं बदली तेरी कहानी!

व्यंग्य

-वीर विनोद छाबड़ा

उस दिन पड़ोसी श्रीबाबू सुबह-सुबह धमके। गुस्से से फड़फड़ा रहे थे। उनके चेहरे पर जहां-तहां आटा लगा देख मैं समझ गया कि आज फिर घेरेतिन से भिड़े हैं, बेलन चला है और शब्दों के तीर भी। ऊपर से कम मगर भीतर बहुत गहरे तक घायल हैं। अब दो घंटे से पहले यहां से हिलेंगे नहीं। कई प्याली चाय सुड़केंगे और नाश्ता भी घसीटेंगे। गुस्से में डबल समझें। खतरा ये है कि इनकी पत्नी, जिसे वह सरकार कहते हैं, इस
बीच तलाशती यहां आयेंगी। वह भी चाय-नाश्ता किये बिना मानेंगी नहीं और साथ ही श्रीबाबू की भी डबल फज़ीहत करेंगी। यह तो हम जैसे-तैसे बर्दाश्त कर लेंगे लेकिन हमारा जो मूल्यवान वक्त बरबाद होगा उसकी भरपाई मुश्किल होगी।

बहरहाल, मैं जैसे ही माज़रा पूछने को हुआ श्रीबाबू फट पड़े- ‘‘क्या हिमाकत है? इतने दिन हो गये निज़ाम बदले हुए। खबर है कि हर जगह तबादले हो रहे हैं। पुराने हटा कर ख़ासमख़ास रखे जा रहे हैं। हमें इससे कोई परेशानी नहीं। बड़े सरकार वादा किये थे ‘मुक्तिदिला देंगे। लेकिन हमें क्या मिला? बाबाजी का ठुल्लू भी नहीं।’’ मैंने समझाने की कोशिश की- ‘‘श्रीबाबू भगवान का दिया आपके पास सब कुछ तो है। मकान-दुकान, फाईव फिगर आमदनी। दो लायक बच्चे, गुणसुंदरी पत्नी....।’’

‘‘बस, बस...’’ मेरी बात काटते हुए श्रीबाबू दहाड़े- ‘‘यही तो है परेशानी। निजाम बदला। छोटे-बड़े सबके दिन बदले। लेकिन हमारी ‘सरकार’ नहीं बदली। हालात जस के तस! वो अपने को धाकड़ सियासी पत्रकार कहने वाले छोटूआ से पूछा था। बोले था कि अभी सूबे के चुनाव दो साल दूर हैं। तब बात करियेगा। अपने सीनीयर से मज़ाक करते हैं। शर्म नहीं आती। सिर्फ हुक्म ही सुनते आये हैं हम अब तक। बड़ी हसरत से वोट किये थे कि निज़ाम बदलेगा, हमारी हुकूमत होगी। हम हुक्म सुनायेंगे और सरकार सुनेगी। हमारी मौजूदा ताकतों में इज़ाफा होगा जिसमें सरकार को बर्खास्त करने की ताकत शामिल होगी। निज़ाम तो बदला, लेकिन यहां सब कुछ पहले जैसा रहा। सरकार की मर्ज़ी का खाना। वो कहें, बैठो तो मैं बैठूं। जब कहें, तभी खड़ा होऊं। घर न हो गया अस्पताल हो गया। सरकार का बस चले तो दफतर भी घर पर शिफ्ट करा दें...’’

Saturday, June 7, 2014

मुलायम सिंह यादव जी ऐसे भी !

-वीर विनोद छाबड़ा

लगभग २१ साल पहले की बात है। मेरे पिता जी किडनी कैंसर से पीड़ित होने के कारण लखनऊ के एसजीपीजीआई में भर्ती थे। उनको ठीक से अटेंड नहीं किया जा रहा था। कतिपय डॉक्टर बाहर से जाँच कराने पर जोर देते थे। मेरे पास चार पहिये की गाड़ी नहीं थी। फिर ऊपर से मई का तपता
महीना। अस्वस्थ पिताजी को टेम्पो में लिटा कर इधर-उधर कई बार भटका। मैंने लगभग सभी डॉक्टरों से विनती की कृपया बाहर दौड़ाएं। आपके संस्थान में सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। जवाब मिलता - तो फिर दो महीने तक इंतज़ार करें।

चूँकि पिता जी (राम लाल) उर्दू के मशहूर अफसानानिगार थे इसलिए उनसे मिलने वाले भी बहुत आते थे। मैंने सभी को यह व्यथा बताई।

किसी ने तमाम अख़बारों में भी ये खबर दे दी कि पीजीआई में उनका ठीक से ध्यान नहीं रखा जा रहा है। उनके तमाम शुभचिंतकों के फ़ोन आने लगे। अनेक लेखको के गुस्से से भरे बयान भी छपे। लेकिन तब भी हॉस्पिटल प्रशासन पर कोई असर नहीं हुआ। उनकी उपेक्षा वाला नज़रिया जारी रहा।

पिता जी के सपा पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह जी बहुत अच्छे संबंध थे। उन दिनों वो सत्ता में नहीं थे। फिर भी आशा की नन्ही आस लेकर  मैं उनके बंगले पर गया। लखनऊ में मेयर बनाने के संबंध एक ज़रूरी मीटिंग चल रही थी। उनके पीआरओ त्रिलोक सिंह मेहता ने बताया कि वो मिल नहीं सकते।

निराश मन से मैंने उन्हें अपनी विपदा सुनाई और एक अर्ज़ी दी। त्रिलोक सिंह मेहता बड़े भले व्यक्ति थे। यह बात मुझे पहले से नहीं मालूम थी।  लेकिन जिस तन्मयता से उन्हों मेरी बात सुनी तो मुझे लगा कि इस व्यक्ति में कोई 'बात है। अगर नेता का पीआरओ बढ़िया हो तो नेता के सम्मान में भी चार चांद लग जाते हैं। और सचमुच मेरी उम्मीद के अनुसार ही मेहता जी कहा - आप बैठो मैं अभी आया।