Thursday, May 29, 2014

सिगरेट-शौक, गुलामी और विदाई तक का सफ़र! (भाग - दो)

-वीर विनोद छाबड़ा
.…गतांक से आगे.…

सिगरेट के कारण मुझे कई बार शर्मसार भी होना पड़ा। खासतौर पर तब जब सिगरेट पीते मुझे मेरे गुरूजनों ने और पिता जी ने देखा। लखनऊ के विद्यांत कालेज के पीछे एक संकरी सी गली थी। इसे पतली गली बोला जाता था। चोरी-छिपे  सिगरेट पीने वाले कालेज के सभी छात्र इसी पतली गली में धूंआ उड़ाने आते थे। ये बात प्रिंसिपल सहित सारे टीचर्स को मालूम थी। उन दिनों ये कालेज प्रशासन की ड्यूटी मानी जाती
थी कि छात्र सिगरेट पीने से बाज़ आयें। यही कारण था कि उस गली में अक्सर छापे पड़ते थे। छात्र खूब पिटते थे। एक बार(सितंबर 1967) मैं भी छापे में फंस गया। छड़ी से खूब सुताई हुई थी। टीचर थे, श्री गिरिजा दयाल श्रीवास्तव उर्फ़ जी0डी0 बाबू। इन्होंने दूसरे कई मुद्दों पर भी मुझे जमकर कई बार पीटा था।

दूसरी घटना 1971 की गमियों की है। परीक्षाएं कब के खत्म हो चुकी थीं। मैंने बी00 फाईनल की परीक्षा दी थी। अब परीक्षाफल निकल रहे थे। लखनऊ यूनिवर्सटी के रजिस्ट्रार आफ़िस में नोटिस बोर्ड पर रोज शाम को किसी किसी विभाग का परीक्षाफल चस्पाया जाता था। उस दिन बी00 फाईनल का रिजल्ट चस्पाया गया था। मगर मेरे वहां पहुंचने से पहले ही किसी दिलजले शरारती ने उसे फाड़ दिया था। वहां कागज़ के चंद टुकड़े ही इधर-उधर बिखरे पड़े मिले। इन्हें समेट कर लाख जोड़ा, मगर मुझे मेरा नाम नहीं दिखा। मेहनत बहुत की थी। ये तो मालूम था कि पास तो होना ही है। मगर डिवीज़न श्योर नहीं था। इसलिये एडवांस में डिवीज़न जानने की उत्कंठा थी। अगर पता नहीं चला तो ये तो तय था कि रात भर दिल की धड़कनें तेज रहंगी। नींद नहीं आएगी। चारपाई पर करवटें बदलूंगा, छत पर या सड़क पर लल्लूओं की भटकता फिरूंगा। अब ऐसे फटे हालात में सुबह तक का इंतज़ार करने के अलावा एक दूसरा विकल्प भी था। अख़बार के दफ़तर जाकर कुछ जुगाड़ लगाया जाये। पड़ोसी मित्र मन्ने के रिश्तेदार नेशनल हेराल्ड प्रेस में थे। साईकिल उठायी और मन्ने के साथ नेशनल हेराल्ड प्रेस जा पहुंचा। संयोग से वह रिश्तेदार उस वक़्त रात्रि ड्यूटी पर था। हमने उसे साघा। उसने पता लगा कर बताया मैटर कंपोजिंग में है। बहुत मुश्किल है पता चलाना। हमने बहुत चिरौरी की तो वो किसी तरह पता कर आया। बोला- बधाई हो, सेकेंड डिवीजन है।

हेराल्ड प्रेस कै़सरबाग़ में था। इसलिये कैसरबाग चैराहा रात भर गुलज़ार रहता था। वहां एक बड़ा दवाखाना खालसा मेडिकल स्टोर भी देर रात तक खुला रहता था। जहां हर किस्म की दवा मिल जाती थी। कै़सरबाग के दो-तीन किलोमीटर के दायरे में कई बड़े सरकारी अस्पताल भी थे। दवा की ज़रूरतमंदों के तीमारदार इसी मेडिकल स्टोर पर रात-बेरात आया करते थे। अलावा इसके आस-पास कई सिनेमाहाल थे। नाईट शो खत्म होने पर इसी चैराहे से होकर ज्यादातर लोग घरों को लौटते थे। रिक्शा-टांगे वालों का जमावड़ा भी जमा रहता था। इन वजहों से भी कै़सरबाग़ में देर रात तक रौनक मिलती थी। उस दिन रात बारह बजे का वक़्त रहा होगा। जब हम हेराल्ड प्रेस से बाहर निकले। सेकेंड डिवीज़न में पास होने की खुशी में सिगरेट तो बनती ही थी। आमतौर पर यों खुलेआम हम सिगरेट नहीं पिया करते थे। लेकिन इतनी रात गये यहां कौन देखता होगा? यह सोच कर मैंने और मन्ने ने बेहिचक होंटों में सिगरेट दबा कर सुलगायी।

हमारी साईकिल क़ैसरबाग़ से चारबाग की तरफ़ बामुश्किल पचास मीटर ही चली थी कि पीछे से मुझे किसी ने पुकारा। ये आवाज़ तो मेरी रग-रग में समायी थी। हे भगवान! ये तो मेरे पिताजी की आवाज़ थी। वो इस वक़्त यहां क्या कर रहे हैं? इन्हें तो बनारस जाना था! मैंने पीछे मुड़कर देखा। पिताजी ही थे। लगा सांस गले में अटक गयी। कलेजा गले तक गया। कई सवाल बड़ी तेजी से ज़हन में उभरे। ये पिताजी क्या कर रहे यहां इस वक़्त? मेरे होटों में लगी सिगरेट देखी तो नहीं। सिगरेट कब होटों से छूट कर गिर पड़ी, पता ही नहीं चला था। स्ट्रीट लाईट की मद्धिम रोशनी में भी वो मेरे चेहरे पर आयी घबराहट को साफ़-साफ़ पढ़ गये। बोले-‘तुम्हारी मां की तबीयत अचानक खराब हो गयी थी। बनारस जाने का प्रोग्राम भी इसी वजह से कैंसिल करना पड़ा। डाक्टर ने दवा लिखी है। वही यहां खालसा में लेने आया था। चारबाग़ में तो सारी दुकाने बंद हो चुकी थीं और हां, सेकंड डिवीज़न में पास हुए न? मुझे यकीन था। पिताजी को मेरे पास होने पर ही नहीं सेकंड डिवीज़न पर भी यकीन था। मैंने सर हिला दिया। पास होने की खुशी तो पीछे से पिताजी की आवाज़ सुनते ही हवा हो चुकी थी। रही-सही कसर मां की बीमारी की ख़बर ने उड़ा दी। मैं चूंकि पिछले पांच घटों से घर से गायब था इसलिये मुझे पता ही नहीं चला था कि मां की तबीयत अचानक इतनी खराब हो गयी कि डाक्टर को बुलाना पड़ा था। ये तो अच्छा हुआ कि पिताजी तब तक बनारस नहीं गये थे। मुझे बड़ा क्षोभ हो रहा था। गुस्सा रहा था खुद पर कि क्या ज़रूरत थी और क्या जल्दी थी रिज़ल्ट जल्दी पता करने की। सुबह अखबार में तो छप ही जाना था। उन दिनों फ़ोन या मोबाईल की सुविधा आज की तरह घर-घर और हर मुट्ठी में नहीं होती थी।

शर्म आने के साथ-साथ डर भी लग रहा था कि पिताजी ने सिगरेट पीते देख लिया था। परंतु उन्होंने इस बारे में कुछ कहा नहीं। लेकिन मेरे दिल का चोर पक्की तरह से जानता था कि मैं पकड़ा जा चुका हूं। कई साल बाद पिताजी ने मुझे बताया था कि उन्होंने मुझे सिगरेट पीते देखा था। उनके दिल को धक्का लगा था। मगर कहा इसलिये कुछ नहीं था, क्योंकि मां की तबीयत ठीक नहीं थी। और फिर प्राथमिकता जल्दी से घर पहुंच कर मां को दवा देने की थी। एक फेक्टर यह भी था कि उन्होंने खुद मेरी जितनी उम्र में ही सिगरेट पीना शुरू कर दिया था। शायद यही वजह रही होगी कि किस मुंह से डांटते मुझे?

अगली बार की घटना 1972 की है। मरीचिकानामक एक नाटक में मेरा आधुनिकता की मद में चूर धूंआधार सिगरेट पीने वाले बिगड़े अमीरज़ादे का किरदार था। मुझे मालूम था आडियंस में मेरा पूरा परिवार बैठा है। डायरेटर प्रेम तिवारी की नसीहत मुझे अच्छी तरह याद थी। स्टेज पर आप सिर्फ किरदार हैं बस। आडियंस की ओर ताकना भी नहीं है। इसी ब्रह्म वाक्य के सहारे मैंने जमकर सिगरेट पी और मधुमती फिल्म के प्राण साहब की तरह मुंह से धूंए के छल्ले निकाल कर भी हवा में फेंका और हमदोनोंके देवानंद स्टाईल से हर शोक को, फ़िक्र को धूंए में उड़ाया।  शो के बाद पिताजी ने मेरी पीट थपथपाते हुए टिप्पणी की थी- सिगरेट पीने की अदा पसंद आयी।मैं अच्छी तरह समझ रहा था कि वो मेरे सिगरेटबाज़ किरदार की प्रशंसा तो कर ही रहे थे साथ ही अपने सिगरटेबाज़ बेटे पर शर्मिंदा भी थे। कोई भी पिता अपने बेटे को उस बुराई की तरफ़ जाता देखना पसंद नहीं करता जिसका वो खुद गुलाम क्यों हो।

नौकरी लगने के बाद सिगरेट कुछ ज्यादा पीने लगा था। पिता जी ने भी मुझे कई बार देखा। जैसे ही अहसास हुआ कि वो मुझे देख रहे हैं, तुरंत सिगरेट फेंक दी। हमारा घर हमेशा मेहमानों से गुलज़ार रहता था। इनमें ज्यादातर नामी अदीब होते थे। उनके शान में पार्टी-शार्टी और पीने-पिलाने का दौर चलता था। सारा इंतज़ाम मेरे ही मत्थे होता था। पिता जी मुझसे पूछते थे कि तुम ड्रिंक में तो साथ देते हो तो फिर सिगरेट में क्यों नहीं। मैं यही कहता था कि मैं आपके मुंह पर धूंआ नहीं फेंक सकता। सिगरेट से जुड़ी और भी कई मजे़दार यादें हैं।

यह सन 1981 की बात है। माता-पिता के साथ चारबाग़ में रहता था। शादी हो चुकी थी। घर छोटा पड़ता था। इंदिरा नगर में एक दो कमरे का मकान एलाट हुआ था। तय हुआ कि मैं फिलहाल इंदिरा नगर में शिफ़्ट हो जाऊं। नयी-नयी कालोनी थी। डी-ब्लाक में मुश्किल से पंद्रह-बीस परिवार रहे होंगे उन दिनों। एक बुजुर्ग से सुबह टहलते हुए मुलाकात हुई। अच्छे लगे। मैं सिगरेट पी रहा था। उनके हाथ में भी थी। ऐसी ही कई मुलाकातें हुई। कई बार सिगरेट का आदान-प्रदान भी हुआ। एक दिन एक हमउम्र नौजवान कमल त्रिवेदी से भी मुलाकात हुई। बात-चीत से पता चला कि वो तो मेरे ठीक पीछे रहता है। हम दोनों के आंगन की चारदीवारी कामन थी। बड़ी खुशी हुई। उसे घर ले गया। औपचारिकतापवश चाय-सिगरेट चली। हम हमख़्याल भी निकले। उसे गीत-संगीत का बड़ा शौक था। माऊथआर्गन बहुत अच्छा बजा लेता था। हर वक्त जेब में रखता था। मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिशस्तानी... उसने माऊथआर्गन पर सुनाया। बस फिर क्या था। हम पहली ही मुलाकात में प्रगाढ़ मित्र बन गये और यह प्रगाढ़ मित्रता पिछले साल जून में उसके स्वर्गवासी होने तक कायम रही। बहरहाल, उस रोज़ कमल ने सपरिवार अपने घर आने का न्यौता दिया। दूसरे दिन मैं सपत्नीक शाम को कमल के घर जा पहुंचा। देखा तो वो बुजुर्ग भी वहां मौजूद थे जिनके साथ मैंने कई बार मार्निंग वाक के दौरान सिगरेट फूंकी थी। मैं भौंचक्का उन्हें देख रहा था। इससे पहले कि पूछता कि चाचाजी आप यहां कैसे, कमल ने परिचय कराया कि ये मेरे पिता हैं। अब काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गयी। यार, यह तो मित्र के पिता निकले जिनके साथ कई बार सिगरेट फूंकी थी। बड़ी शर्मिंदगी हुई। कुछ दिन बाद जब मकान में दो अतिरिक्त कमरे बनवा लिये तो मेरे माता-पिता भी मेरे साथ रहने के लिये गये। तब मेरे पिताजी और कमल के पिताजी में गहरी दोस्ती हो गयी। कई बार ऐसा हुआ कि हम दोनों के पिता एक कमरे में सिगरेट खींच रहे होते थे और हम दोनों दूसरे कमरे में।

एक बार रात करीब एक बजे पिताजी ने मुझे उठाया। बोले-‘एक अफ़साना लिख रहा हूं। कल शमा (उस ज़माने का मशहूर उर्दू मासिक) को भेजना है। सिगरेट खत्म हो गयी है। तुम्हारे पास होगी। दो-तीन दे दो। मूड बना हुआ है। यह अफ़साना पूरा हो जायेगा।मैं बड़े असमंजस्य में पड़ गया। दरअसल सिगरेट तो थी मेरे पास, मगर मैं ये ज़ाहिर नहीं होने देना चाहता था कि मैं सिगरेट का इतना बड़ा तलबी हूं कि डिब्बी भी रखता हूं। उन दिनों हम लोग इंदिरा नगर कालोनी नयी-नयी थी। आबादी ज्यादा नहीं थी। इक्का-दुक्का दुकानें थीं। इतनी रात में सिगरेट कहां मिलेगी? मैं सफेद झूठ बोल गया-‘सिगरेट तो नहीं है। मगर देखता हूं। मुंशी पुलिया पर शायद कोई दुकान खुली मिल जाये।मैंने स्कूटर उठाया और थोड़ी देर तक इधर-उधर टहलने के बाद लौट आया और अपनी डिब्बी पिता जी को दे दी। पूछा- ‘कहां मिली?’ मैं बोला- ‘वो बजरंगी पानवाला है न। अच्छी जान-पहचान है। अपनी गुमटी के बाहर ही सो रहा था। उसे उठा कर गुमटी खुलवा ली थी।पिता जी समझ तो गये कि मैं झूठ बोल रहा हूं। बोले कुछ नहीं। समझ गये कि बेटा सिगरेट के मामले में पिता से दूरी बना कर रखना चाहता है।

मुझे याद है कि तब होश संभाला था तो उन दिनों हर तरफ मुझे सिगरेट पीने वाले ही नज़र आते थे। घर में पिताजी धूंआधार सिगरेट पीते थे। शुरू में उनका ब्रांड चारमीनार था। बाद में कई साल तक पनामा रहा और अंतिम दौर में विल्स। दादाजी और अन्य रिश्तेदार दिल्ली में रहते थे। उन सबको सिगरेट पीते देखता था। दादाजी मुट्ठी में दबाकर कैवेंडर पीया करते थे। मेरी बड़ी बहन  शादी के बाद पहली बार घर आयी तो मैंने पूछा था- ‘जीजाजी सिगरेट पीते हैं?’ वो बोली थी- ना बाबा, ना। बिलकुल नहीं। उनके सामने पीना तो दूर नाम तक भी नहीं लेना। सिगरेट से सख्त नफ़रत करते हैं वो। मैं कई साल तक इसी मुगालते में रहा। 1972 में मैं उनसे मिलने बीकानेर गया। रात भोजन के बाद टहलने निकले। सिगरेट की ज़बरदस्त तलब लगी थी। कई दिन से सिगरेट होंटों पर नहीं लगी थी। मैंने तनिक संकोच से उनसे सिगरेट पीने की आज्ञा मांगी तो सहर्ष स्वीकृति प्रदान करते हुए बोले- ‘दो लेना। एक मेरे लिये भी।मैं अवाक उनका मुंह देखने लगा था। फिर उनके ही श्रीमुख से पता चला कि वो पुराने सिगरेट पीने वालों में से हैं, शादी से पहले के। यूनिवर्सटी में प्लेटो की रिपब्लिकऔर अरस्तू की पोलिटिक्सपढ़ाने और उस पर लंबे जादुई भाषण देने वाले हमारे जीनीयस प्रोफेसर डा0 राजेंद्र अवस्थी तो क्लास में आने के पूर्व टीचर्स रूम में बैठकर दो-तीन सिगरेट ज़रूर फूंकते थे। शायद इसके धूंए में वो सुकरात, अरस्तू और प्लेटो की रूह से रूबरू होते थे। इसीलिये पढ़ाते-पढ़ाते वो ईसा पूर्व इरा में खुद भी पहुंच जाते थे और साथ में हमें भी ले चलते थे। इससे मेरी ये धारणा बलवती हो गयी थी कि फ़िलासफ़र बनने के लिये सिगरेट ज़रूरी है।

उन दिनों लखनऊ में एक सिनेमाहाल मेफ़ेयर होता था। वहां ज्यादातर अंग्रेज़ी फिल्में रिलीज़ होती थीं। उस दौर में  लखनऊ का यह एकमात्र पूर्णतया वातानुकूलित छविगृह था। अंग्रेज़ी पुस्तकों वाली ब्रिटिश कांैसिल लायब्रेरी भी मेफेयर के ऊपरी हिस्से में थी। प्रतिष्ठित क्वालिटी रेस्टोरेंट भी उसी मेफेयर बिल्डिंग में था। बताया जाता था कि यहां सिर्फ़ अंग्रेज़ी जानने वाले अभिजात्य वर्ग के बंदे ही पाये जाते हैं। कुल मिला कर वहां का माहौल टोटल अंग्रेज़ीयत की मोटी चादर ओड़े हुए था। हिंदी के धुरंधर प्रेमी भी वहां सूट-बूट में आते थे और वहां के माहौल से प्रभावित होकर तोता रटंत टाईप अंग्रेज़ी बोलने लगते थे। अंग्रेज़ी जुबान की समझ ज्यादा नहीं थी। जब सब हंसते तो मैं भी हंस लेता था। इसके साथ ही फेफड़ों की एक्सरसाईज़ भी हो जाती थी। मेफ़ेयर के वातानुकूलित कारीडोर में खड़े होकर सिगरेट पीने में आनंद तो निराला था। किसी अंग्रेज़ीपरस्त कुलीन परिवार की औलाद होने की अनुभूति होती थी। अंग्रेज़ी माहौल के असर से वहां लोगों का सिगरेट पीने का अंदाज़ भी बदला-बदला सा और कुछ-कुछ फ़िलासफाना होता था। होंटो के किनारे सिगरेट दबा कर अंग्रेज़ों से भी बढ़िया चबाई हुई अंग्रेज़ी बोली जाती थी। मैंने भी कई साल तक वहां अंग्रेज़ी समझ में आने के बावजूद अपनी अंग्रेज़ी की लियाकत में इज़ाफ़ा किया। और सिगरेट पीने की स्टाईल को पारिमार्जित किया। ओडियन में भी कमोबेश यही माहौल होता था। मगर मेफे़यर की बात ही कुछ निराली थी। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि मेफ़ेयर हज़रतगंज में था, जहां अंग्रेज़ों के ज़माने में अंग्रेज़ बहादुर और उनकी मेमें बच्चे सैर-सपाटा और शापिंग करते थे। आम हिंदुस्तानी का वहां से गुज़रना तक मना होता था। अंग्रेजों को हिंदुस्तान से विदा होने के बाद भी मुद्दत तक लखनऊ में अंग्रेज़ियत का जो बुखार चढ़ा रहा उसे जिंदा बनाये रखने का बहुत सा श्रेय मेफे़यर बिल्डिंग के वातानुकूलित गलियारों को भी दिया जा सकता है। हालांकि आज मेफ़ेयर, क्वालिटी और ब्रिटिश लायब्रेरी को बंद हुए अरसा हो चुका है। वो अंग्रेज़ी कल्ट के लोग भी कबके दफ़न हो चुके हैं, शहर छोड़ गये हैं या उम्रदराज़ होने की वजह से खुद को घरों में कैद कर रखा है। मगर हज़रतगंज आज भी लखनऊ का सबसे बड़ा पाश बाज़ार है। लेकिन यहां अब अब आपा-धापी है। हर शख्स खुद में खोया भागता हुआ सा दिखता है। पुराने बंदे जब भी इधर से गुज़रते हैं तो बेसाख्ता यहां की पुरानी मस्ती भरी यादों में गुम हो जाते हैं।
बाकी भाग -तीन में

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-वीर विनोद छाबड़ा
डी0 2290, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मोबईल नं0 7505663626

दिनांक/ 30. 05. 2014

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