Wednesday, April 30, 2014

वो आख़िरी सिगरेट !

मेरे पिता जी, राम लाल, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार, तक़रीबन चेनस्मोकर थे। वो उत्तर रेलवे में मुलाज़िम थे। सिगरेट उनकी शख़्सियत का हिस्सा थी तो ट्रेन उनके अफ़सानों की। ट्रेन में बढ़िया बर्थ हो, वेटिंग रूम में आरामकुर्सी या प्लेटफॉर्म पर ही खाली बेंच मिल जाये और सिगरेट की डिब्बी साथ हो तो एक अफ़साना उनकी क़लम से निकलना बड़ी बात नहीं थी। कई बार तो इतने मशग़ूल हो जाते थे कि ट्रेन छूट जाती थी।

एक बार ज़िद पकड़ी थी कि सिगरेट नहीं पियूँगा। इस बीच छह महीने स्कैण्डिनेवियन और यूरोप भी रह आये।
मगर वहां से लौटते ही जाने क्या सूझी कि फिर शुरू हो गए। सिगरेट पीने से कभी-कभी सांस भी फूलती थी और साथ में खांसी भी खूब आती थी। डॉक्टर दवा देते थे और ताक़ीद करते थे कि छोड़ दीजिये। दो तीन दिन तक नहीं पीते। मगर ठीक होते ही फिर शुरू हो जाते।
सन १९९३ में जब डॉक्टर ने घोषित किया  कि किडनी कैंसर है और इसकी एक वज़ह सिगरेट भी है तो उन्होंने सिगरेट से फाइनल तोबा की। उन दिनों वो पीजीआई में भर्ती थे।
मुझसे बोले- 'सुना है कैंसर है। शायद दो-ढाई महीने बाकी बताये हैं। अब तो  सिगरेट छोड़नी ही पड़ेगी।'
मेरा दिल भरा हुआ था। क्या बोलता ? कुछ बोला ही नहीं गया। मुंह घुमा लिया। सोच रहा था मौत को इतने करीब देख कर मुझे इतना दर्द और ख़ौफ़ हो रहा है  तो पिताजी के दिल पर क्या बीत रही होगी ?
कुछ लम्हे हम दोनों के बीच गहरा सन्नाटा रहा। वो कुछ लम्हे इतने लंबे थे कि लगा सदियां गुज़र गयी हों। कैसे तोडूं इस ख़ौफ़नाक चुप्पी को? हिम्मत भी नहीं हो रही थी।
आख़िर पिताजी ही ने चुप्पी तोड़ी- 'ठीक है जितनी भी ज़िंदगी है एन्जॉय किया जाये।' वो बड़े सहज दिख रहे थे। फिर एक एक पल रुके और बोले- 'ज़िन्दगी के इस 'आख़ीर' पर आख़िरी बार एक सिगरेट पीने की ख्वाईश है।' उनकी नज़र मेरी शर्ट की जेब में रखी सिगरेट की डिब्बी पर थी।
और मैंने उनकी ख्वाईश पूरी की।
यह पहली और आख़िरी बार था कि मैंने उनको अपनी कमाई से सिगरेट पिलाई थी।

- वीर विनोद छाबड़ा
30 04 2014                                                                

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