Monday, January 20, 2014

शर्म हमें मगर नहीं आती!

-वीर विनोद छाबड़ा

उस दिन गोरखरपुर में एक किशोरी के साथ गैंगरेप की घटना ने पूरे ज़िले में त़बरदस्त ऊफ़ान पैदा कर दिया। तमाम फिरके और सामाजिक संगठन इस दरिंदगी की मुख़लाफत करने के लिए सड़को पर उतर पड़े। मगर बड़े शर्म की बात है कि सूबे की राजधानी लखनऊ और उसके आस-पास के देहाती इलाकों और कस्बों में आए दिन अबलाओं पर जु़ल्म ढाए जाते हैं, अस्मतें लूटती हैं, दहेज की में जलायी जाती हैं, मगर लखनऊ के बंदे इल्मो-अदब और नफ़ासत की मोटी चादर ओढ़ कर सोते रहते हैं। यहां की संजीदगी अब इतिहास की बात हो चली है। एंटिक के तौर पर चंद जर्जर इमारते और कुछ हांफते-कांपते बुजुर्ग ही बचे हैं। अब यहां हद दरजे के संवेदनहीन बसते है। मिसाल पेश है। कुछ महीने हुए, शहर के रईस इलाके गोमती नगर में एक चार साल की मजलूम मासूमा दरिंदगी का शिकार हुई। थानेदार बोला- कुत्तो ने नोच डाला। मौकाए वारदात के आस-पास रहने वाले शरीफों ने सीसी कैमरा फुटेज जांच एजेंसियों से शेयर नहीं की। मजलूम मासूमा की बेवा मां के ज़ि़ंदा रहने का सबब ही ख़त्म हो गया। बाकी ज़िंदगी को वो एक जिंदा लाश के माफ़िक ढोएगी।


पिछले साल के मुकाबले इस साल शहर में ज्यादा रेप मामले हुए हैं। मगर अफ़सोस इन हादसों पर शहर सोता रहा। दरिंदगी की मुख़ालफ़त करने सामाजिक और सियासी इदारे एकजुट नहीं हुए। प्रोटेस्ट और श्रद्धांजलि देने के मरकज़ जीपीओ पार्क में मोमबत्ती जलाने कोई नहीं आया। सोशल मीडिया से भी आवाज़ बुलंद नहीं हुई। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सांस तक नहीं ली। प्रिंट मीडिया ने ज़रूर दिलचस्पी दिखायी। कुछ दिन तक फालोअप छपे, फिर गायब हो गए। हां, वारदात वाले इलाकों में उबाल आया। असंगठित हुजूम सड़क पर उतरे। सरकार, पुलिस और दरिंदों को जम कर कोसा  सियासत भी हुई। पुलिस मौकाए वारदाम पर पहुंच कर मुआवजा़ दिलाने का वादा किया, जाम खुलवाया  और फिर सब कुछ ठंडा हो गया। इंसाफ़ हुआ कि नहीं? इतिहास खामोश है।
हैरानी तब होती है जब दिल्ली की कोई दामिनी के दरिंदगी का शिकार होती है तो हमारा समूचा शहर फौरन उबाल ,खाने लगता है। प्रोटेस्ट मार्च निकलते हैं, जीपीओ पार्क में हजारों मोमबत्तियां जल उठती हैं। सवाल ये है कि ये कोैन सी जमातें हैं और इसमें कौन लोग हैं जो ये फैसला करते हैं कि दिल्ली के हो-हल्ले में जमकर शामिल हो जाओ मगर जब अपने शहर में ऐसा हादसा हो तो गहरी खामोशी अख्तियार कर लो। अब देखिए लखनऊ का आठ साल पुराना हो चला आशियाना रेप कांड। बाज़ महिला संगठनों और पिं्रट मीडिया के जज्बे को सलाम कि इस केस में आरोपित बिगड़ैल रईसजादे न सिर्फ सलाखों के पीछे पहंुचे बल्कि सजा भी हुई। मगर इंसाफ अभी अधूरा है। एक आरोपी अभी तक सलाखों के पीछे नहीं पहुंचाया जा सका है। कानून के दांव-पेंचों में मामला उलझाया जा रहा है। दरअसल उसके तार सत्ता पक्ष के एक पावरफुल नेता से जुड़े हैं। शायद यही वजह है कि मजलूम महिलाओं की सुरक्षा का दम भरने वाली सूबे की सरकार इस केस की मजलूम पीड़िता को माली इमदाद देने तक के लिए आगे आने से संकोच कर रही है। और शहर के ज्यादातर लोग खामोश हैं।

बहरहाल, उम्मीद है कि गोरखपुर में पैदा उबाल से उठा गुब्बार सूबे की राजधानी के वासियों को भी जगा देगा और हम, देर से ही सही, खुद की तस्वीर पर चस्पे ‘शर्म हमकेा मगर नहीं आती’ के लेबुल को उखाड़ फेंकने में कामयाब हो जाएं।
-----

जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ दिनांक 20.01.2014 के ‘उलटबांसी’ स्तंभ में प्रकाशित।






No comments:

Post a Comment